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Thursday, February 13, 2014

सुनने का कमरा

 लता- मैंने बाज़ार पर लिखा है अब मैं मम्मी के साथ बाज़ार जाती हूँ न।
नेहा - (लता की बात काटते हुए) मुझे सुनाने दे न मैंने  अपने पापा की चिंता के बारे में लिखा है।
लता -  अच्छा, चल तू सुना। … (सहानुभूति के साथ अपनी जिज्ञासा को जताते हुए।)

मुस्कराहट के साथ कमरे में एक उत्तेजना भरी शांति हो चली। नेहा अपने बैग की छान बीन करने के बाद.…

नेहा- कॉपी घर में रह गयी।  मैंने पापा को बहुत दिनों तक चिंता में देखा तो उनपर लिखा था।

लता - थोड़ा छेड़ते हुए.… तुझे कैसे पता चला कि वो चिंता में है या नहीं?

नेहा - (तुरंत उसपर बात रखती)… बस चेहरे से पता चल जाता है मुझे।  पापा ज्य़ादा बात नहीं करते तब।

सलोनी - हाँ मेरे पापा गुस्सा करते है जब परेशां होते है।

नेहा- मेरे पापा गुस्सा नहीं करते। .... मेरे पापा की जब नौकरी हट गई थी तो सारा सारा दिन घर में रहते थे। मै और मेरा भाई जब खेलते थे तब मैं पापा हमें देखते ही रहते थे। एक बार जब मेरे भाई का बैग बहुत दिनों से जो फटा हुआ था उसके लिए रोता था तब मम्मी को गुस्सा आता था मगर पापा गुस्सा नहीं करते थे।  मुझे पता चल गया था कि पापा जब काम पर ही नहीं जाते तो उनके पास पैसे कैसे होंगे। फिर वो बेग कैसे दिलवाएंगे। लेकिन मेरे पापा मेरे भाई को रोज़ प्यार से यही बोलते हैं दिलाएंगे नया बैग, दिलाएंगे।  मेरा भाई मान जाता है फिर अगले दिन रोता है।  

कभी कभी क्लास का माहौल जितना हाथ में होता है उतना ही हाथों से बाहर भी रहता है। बहुत सारे विवरण और किस्से एक साथ सामने होते हैं।  किस्से इस कमरे को दिलचस्प बनाते हैं। सभी अपनी डायरी में लिखा गया किस्सा सुनाना चाहते हैं तो कभी कुछ मौखिक ही सुना बैठते हैं। 

2 comments:

गुरप्रीत सिंह said...

बचपन की मिट्ठी यादेँ।


www.yuvaam.blogspot.com

Unknown said...

shukriya gurpreet ji.